जाँता

घर के एक हिस्से को नए सिरे से बनवाने का काम चल रहा..कबाड़ हटाए जा रहे थे कि ये मिल गये..जाँता के दो पाट....अच्छा लगा ...हालांकि पुराने जमाने में लगभग हर गृहस्थ के पास ये होते थे...

पर भोजपुर क्षेत्र में जाँता महज 'गृहस्थ जीवन का आवश्यक साधन' मात्र नहीं रहा बल्कि परदेस गए परदेसी के पीछे उसके घर-गाँव में छूटी उसकी  विरहिणी के दुःख-दर्द का सच्चा साथी भी बना रहा...उसकी पीड़ा को सुनने-समझनेवाला...उसके आंसुओं को चुपके से अपने में समाहृत कर लेने वाला...

कहते है घर के किसी अंधेरे कोने में 'जाँता' चलाते हुए विरहिणी जब विरह की वेदना को धीमे-धीमे स्वर दे रही थी, तो जतसार गीतों का जन्म हुआ...

त लीही सभे भिखारी ठाकुर के बिदेसिया से एगो जतसार-
ए सामी जी,
जवना जून भइली सुमंगली त
जननी जे भाग जागल हो राम
ए सामी जी,
घरवा-भीतरवा बइठाइ कर गईल
कवन दो मुलुकवा भागल हो राम
ए सामी जी
सुसुकि-सुसुकि लोरवा पोंछत बानी
केहू नईखे सुनत रागल हो राम
---स्वयंबरा

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