उदासियों की नदी

मेरे भीतर बहती है
उदासियों की एक नदी
एकदम भीतर
मन की परतों से बंधी
चुपचाप बहती है
खारे पानी की नदी
न उद्गम ना अंत
बस घूमती रहती है
गहरी  खाईयों में
कभी-कभी या अचानक ही
बादलों के फट जाने से
परत दर परत
गाद के जमते जाने से
आ जाती है   
भावनाओं की  बाढ़
कटने लगते है किनारे
टूटने लगती हैं सांसे
हाहाकार सा उठता है
फ़ैल जाता है रेतीला पानी
तटों को तोड़ते हुए जाने कहाँ तक
क्षण मात्र में
समूचा अस्तित्व डूब जाता है
फिर सबकुछ चूक जाने के बाद
पानी के भाप बनकर उड़ जाने के बाद
एक नया तटबंध बांधा जाता है जबरन
सीमाएं तय की जाती हैं
और नदी बहने लगती है
चुपचाप, फिर से
मन की परतों के भीतर
.................स्वयंबरा 

Comments

thusuk said…
सुन्दर ......भावाभिव्यक्ति बहुत सुन्दर....एक एक शब्द दृश्य में बांध दे रहा है...